आस्था का केंद्र है वागड़ की ‘शक्तिपीठ’ मां आशापुरा मंदिर, 650 साल से भी ज्यादा पुरानी है मूर्ति

साबला पंचायत समिति से 16 किमी की दूरी पर गामड़ी निठाऊआ में स्थित चौहान वंश की कुल देवी मां आशापुरा मंदिर जन-जन का आस्था का धाम बना हुआ है. मान्यता है कि आशापुरा मंदिर के दरबार में पहुंचने वाले हर भक्त की मनोकामना पूर्ण होती है. हर साल नवरात्रि पर मां के दरबार में भक्तों का तांता लगा रहता है. लेकिन कोरोना के कारण इस बार भक्तों को माता के दर्शन से संतोष करना पड़ेगा.

वागड़ के निठाऊआ में मां आशापुरा मंदिर के दरबार में भारी संख्या में भक्त पहुंचते हैं. इस मंदिर की मान्यता है कि यहां आनेवाले हर भक्त की मनोकामना पूर्ण होती है. ऐसे तो माता आशापुरा के मंदिर में आम दिनों में भक्तों का तांता लगा रहता है.

सम्राट पृथ्वीराज चौहान की आराध्य कुलदेवी जगदंबा आशापुरा की प्रतिमा यहां विराजमान है. मान्यता है कि सांभर (राजस्थान) के पास माता ने देवगिरी पर्वत पर चौहान वंश के राजा माणकराव को आशा पालव के वृक्ष से प्रकट होकर दर्शन दिए थे. तभी भवानी को आशापुरा माताजी के नाम से पूजा जाने लगा.

चौहान राजपुतों की कुलदेवी आशापुरा माता की प्रतिमा की विक्रम संवत 1380 में शासक मोदपाल ने नाडोल (मारवाड) से यहां लाकर प्रतिष्ठा की. इसकी सर्वप्रथम प्रतिष्ठा आमेर के चौहान राजा अणोराज ने तारागढ़ पर विक्रम संवत 1180 से 1208 के मध्यकाल में करवाई थी. विक्रम संवत 1236 में पृथ्वीराज तृतीय दिल्ली के राजा बने. तब इस प्रतिमा को दिल्ली ले जाकर निगम बोध घाट पर पुरोहित गुरूराम से इसकी प्रतिष्ठा करवाई. 1249 में पृथ्वीराज के निधन हो जाने और दिल्ली में इस्लामी शासक हो जाने पर पृथ्वीराज के भाई हरराज, जो कुंवर गोविन्दराम के संरक्षक थे, वे इस प्रतिमा को रणथंभौर ले गए और प्राण प्रतिष्ठा करवाई.

राजा हमीर के बाद रणथंभौर में भी इस्लामी शासक हो गया. तब उनके वंशज प्रतिमा को सांचौर (मारवाड़) ले गए और उसकी नाडोल में प्राण प्रतिष्ठा करवाई. कालान्तर इसी वंश में मोदपाल नाडोल के शासक बने. चौदहवीं शताब्दी में मुस्लिम हमलवारों ने नाडोल पर आक्रमण कर दिया. नाडोल की सुरक्षा खतरे में पड़ गई. मोदपाल के 32 पुत्र थे. इनमें 28 पुत्र लडाई में काम आएं. काकाजी गंगदेव व मोदपाल ने मिलकर वीरता दिखाई.

मंदसौर में भी माता की प्रतिमा हुई विराजमान

विक्रम संवत् 1352 जेठ सुदी अष्ठमी को आशापुरा माता ने मोदपाल को सपना दिया कि मेरी प्रतिमा को रथ में रखकर मालवा की और चल दो, जहां पर रथ रूक जाए, वहां पर शासन जमा लेना. मोदपाल अपने चार बेटों और काका जैतसिंह के साथ सेना लेकर रथ के साथ रवाना हुए. मंदसौर (मध्यप्रदेश) में रथ का धरा टूट गया. वहां शासन जमाया और माताजी जीरण में विरजमान हुई. आज भी वहां धरें की पूजा होती है. दुश्मनों ने वहां पर भी हमला बोल दिया. नया रथ बनाकर मोदपाल आगे बढ़े तो सांडलपोर के पास जंगलो के बीच गुजरते समय रथ का पहिया टूट गया, वहां पर किला बनाया और कुछ समय तक शासन किया. सांडलपोर में आज भी वहां पर किला मौजूद है.

विक्रम संवत 1380 से माता निठाउआ में हैं विराजमान

कुछ साल सांडलपोर में शासन करने के बाद मोदपाल को यह स्थान भी छोड़ना पड़ा. मोदपाल ने माताजी की प्रतिमा को रथ में रखकर वागड़ की और प्रस्थान किया. विक्रम संवत 1380 से माता आशापुरा गामडी निठाउआ में विराजमान है. तभी से मोदपाल वंशज माताजी की पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं.

किवदंती है कि एक बार माताजी के मंदिर में लसाडिया के चोर हमला और कानजी चोरी करने आए तो माताजी ने इन्हे बांध दिया, तब इन्हे लेने कोई भी नहीं आया. इन्होंने माताजी की सेवा करना स्वीकार्य किया, तब से इनका वंशज पुजारी के रूप में सेवा करता आ रहा है. माताजी का खेड़ा इन्हीं पूजारियों का बसाया गांव है.

अश्विन और चैत्री नवरात्री में नौ दिन तक इस मंदिर में अनुष्ठान चलता है. दुर्गाष्टमी और नवमी को मेला भरता है. यहां पर श्रद्धालु संतान प्राप्ति और असाध्य बिमारियों के निराकरण के लिए आते हैं. नवरात्री के अलावा मंगलवार और रविवार को भी दिनभर जातरूओं की रेलमपेल बनी रहती है.

भक्त करते है पदयात्रा

नवरात्री की अष्ठमी के दर्शनाथ के लिए राजस्थान, मध्यप्रदेश के साथ हीं गुजरात से भक्त नंगे पाव पदयात्रा कर सुख-समृद्धी की कामना करते हैं. अष्टमी के दिन तो मेले में पैर रखने के लिए तिल भर भी जगह नहीं मिलती थी.

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